नई दिल्ली
जम्मू-कश्मीर में चुनाव होते ही फिर आतंकी हमले बढ़ गए हैं. जम्मू-कश्मीर के गुलमर्ग में गुरुवार को सेना की गाड़ी पर आतंकी हमला हुआ. इस अटैक में दो जवान शहीद हो गए और दो पोर्टर यानी कुलियों की मौत हो गई. अब सवाल है कि आखिर ये पोर्टर कौन होते हैं, आतंकी सेना के जवानों के साथ-साथ इन्हें भी क्यों टारगेट कर रहे हैं? आखिर ये पोर्टर भारतीय सेना के जवानों के लिए इतने अहम साथी क्यों होते हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब से समझ आ जाएगा कि आतंकी आखिर इनके पीछे क्यों पड़ चुके हैं.
दरअसल, नापाक मंसूबा पाले ये आतंकी अब नए प्लान के तहत हमले कर रहे हैं. ये भारतीय सेना की उस कड़ी को तोड़ना चाह रहे हैं, जिससे जम्मू-कश्मीर में जवानों को बड़ी मदद मिलती है. इन्हें पोर्टर या कुली कहते हैं. जम्मू-कश्मीर में इंडियन आर्मी के लिए ये पोर्टर बड़ा ऐसेट होते हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो जम्मू-कश्मीर में ये पोर्टर आर्मी वालों की मदद करते हैं. यह सेना के लिए बड़े मददगार होते हैं. दूरदराज के इलाकों में या पहाड़ों पर ये पोर्टर ही सामान लाने और ले जाने समेत हर तरह से सेना की मदद करते हैं.
जम्मू-कश्मीर में बड़े काम के होते हैं पोर्टर
दरअसल, जम्मू-कश्मीर के गृह मंत्रालय ने साल 1948 में रक्षा श्रम खरीद विभाग की स्थापना की थी. इसी के तहत पोर्टर सेना की मदद के लिए शामिल किए गए थे. ये पोर्टर सेना के जवानों के साथ सीमा पर हथियार लेकर तैनात नहीं रहते या फिर ये दुश्मनों से नहीं लड़ते. बल्कि इनका मुख्य काम भारतीय सैनिकों की मदद करना होता है. दूरदराज के इलाकों में ये पोर्टर सैनिकों की मदद के लिए काम करते हैं. बेस कैंप से सैनिकों तक कुछ सामान पहुंचाने या फिर तैनाती की जगह से सामान लाना ही इनका असल काम होता है. कुल मिलाकर कहा जाए तो पोर्टर सेना के लिए सामान ढोते हैं और पहुंचाते हैं.
क्या होता है काम, आतंकी क्यों टारगेट कर रहे?
क्योंकि यह भारतीय सेना के जवानों की मदद करते हैं, इसलिए इन पोर्टरों को पैसा भी भारत सरकार ही देती है. पोर्टर की कोई सैलरी नहीं होती है. इन्हें काम और दिन के हिसाब से पैसे मिलते हैं. जम्मू-कश्मीर में बकायदा इनकी भर्ती निकलती है. एक तरह से कहा जाए तो आतंकियों के खिलाफ लड़ाई में यो पोर्टर बड़ी भूमिका निभाते हैं. इन्हें इलाकों के चप्पे-चप्पे की खबर होती है. इन्हें रास्तों से लेकर हर इलाकों की जानकारी होती है. इससे भारतीय सेना को बड़ी मदद मिलती है. यही वजह है कि अब ये आतंकी इन्हें टारगेट कर रहे हैं. उन आतंकियों को भी पता है कि ये पोर्टर सेना के लिए आंख-कान की तरह काम करते हैं. साथ ही इनकी वजह से दूरदराज के इलाकों में भी सेना आतंकियों के खिलाफ अभियान को अंजाम दे देती है.
कैसे अस्तित्व में आया पोर्टर का कॉन्सेप्ट?
जम्मू-कश्मीर डिफेंस लेबर प्रोक्योरमेंट डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर अक्टूबर 1947 तक एक रियासत थी. उस समय सरहद पार से कबायलियों ने हमला कर दिया. भारतीय सेना को रियासत की रक्षा के लिए बुलाया गया. लेकिन उन्हें सरहदों पर हर तरह का सामान पहुंचाने के लिए नागरिक मदद की जरूरत पड़ी. इसके लिए एक अस्थायी व्यवस्था बनाई गई, जिसके तहत स्थानीय गांव के मुखिया आगे के इलाकों तक सामान ले जाने के लिए सेना को पोर्टर (कुली) और टट्टू दिलाने में मदद करते थे. सेना के बेस मुख्यालय से आगे के इलाकों तक सामान की आवाजाही को आसान बनाने के लिए अधिकारियों ने एक अस्थायी संगठन बनाने का फैसला किया जो सेना को पोर्टर दिलाने में मदद कर सके. इस तरह जम्मू-कश्मीर में डिफेंस लेबर प्रोक्योरमेंट डिपार्टमेंट यानी रक्षा श्रम खरीद विभाग बना. इसी के तहत पहली बार जम्मू-कश्मीर में पोर्टर की व्यवस्था जम्मू-कश्मीर में आई. बाद में भारत सरकार के कंट्रोल में आ गया.