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India के धैर्य और Strategy ने China की सारी Tricks पर पानी फेर दिया

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भारत ने पूर्वी लद्दाख में चीन को कड़ी टक्कर दी है। इस कूटनीतिक रस्साकशी में चीन को भारत के साथ समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इससे साबित होता है कि दृढ़ रहने, मोलभाव की ताकत बनाने और सख्त बातचीत करने से चीन जैसे आक्रामक पड़ोसी को पीछे हटने पर मजबूर किया जा सकता है।

यह समझौता दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद, विशेष रूप से देप्सांग और देमचोक क्षेत्रों में गश्त के अधिकारों पर केंद्रित है। चीन ने 2020 से देप्सांग के मैदानों में लगभग 650 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र और देमचोक में दो गश्ती बिंदुओं (पेट्रोलिंग पॉइंट्स) पर भारत की पहुंच को अवरुद्ध कर दिया था, जिसे भारत ऐतिहासिक रूप से अपना क्षेत्र मानता है।

चीन का तर्क था कि ये मसले 2020 के गतिरोध से पहले के हैं, इसलिए इन्हें ‘विरासत के मुद्दे’ मानकर अलग से सुलझाया जाना चाहिए। हालांकि, भारत ने इस तर्क को खारिज करते हुए जोर देकर कहा कि ये सभी मुद्दे मौजूदा गतिरोध का हिस्सा हैं और इन्हें हल किए बिना असहमति की स्थिति खत्म नहीं हो सकती।

चीन ने देप्सांग में ‘बॉटलनेक’ नामक एक संकरे रास्ते पर अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी थी, जिससे भारतीय सैनिकों के लिए गश्त करना मुश्किल हो गया था। भारत देप्सांग में अपने ऐतिहासिक दावे के लगभग 70% क्षेत्र (लगभग 650 वर्ग किलोमीटर) में गश्त करने के अधिकार पर अड़ा रहा।

देमचोक में विवाद का क्षेत्र छोटा था, लेकिन यहां मुद्दा सिद्धांत का था। भारत ने स्पष्ट किया कि चीन ने जिन दो पेट्रोलिंग पॉइंट्स तक पहुंच रोकी है, वहां 2020 से पहले की स्थित में आकर भारत की पहुंच बहाल किए बिना समझौता स्वीकार्य नहीं होगा। इसके अलावा, सिंधु नदी और चार्डिंग नाले के पार स्थानीय लोगों की पारंपरिक चरागाह भूमि तक पहुंच का मुद्दा भी महत्वपूर्ण था क्योंकि चीन इन जलस्रोतों के किनारे वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को अपने पक्ष में चित्रित करने की कोशिश कर रहा है।

चीन ने 2022 में समझौते से इनकार कर दिया था।

तब से दोनों देशों के बीच गतिरोध की स्थिति बनी हुई थी। चीन ने पैंगोंग त्सो झील की तर्ज पर देप्सांग और देमचोक में भी एक ‘गैर-गश्ती क्षेत्र’ (नॉन पेट्रोलिंग जोन) बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि, भारत ने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि इन दोनों स्थानों में विवादित क्षेत्र का आकार बहुत बड़ा है और इसे अन्य छोटे विवादित स्थानों से तुलना नहीं की जा सकती जहां सैनिकों के बीच केवल कुछ किलोमीटर की दूरी होती है।

ऐसा जान पड़ता है कि 2023 तक चीन का रुख नरम पड़ने लगा था और जोहान्सबर्ग में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से पहले समझौता होने की संभावना थी। हालांकि, चीन संभवतः पीएलए के दबाव के कारण अंतिम समय पर पीछे हट गया।

भारत अपने रुख पर कायम रहा

और एक साल तक इंतजार करता रहा। इस दौरान, भारत ने पूर्वी क्षेत्र में यांग्त्से और असाफिला जैसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों पर अपनी सैन्य तैनाती को मजबूत कर लिया, जिससे चीन पर दबाव बढ़ गया। अंततः चीन को झुकना पड़ा और एक समझौते के लिए राजी होना पड़ा।

हालांकि, भारतीय सेना अभी भी सावधान है क्योंकि इस तरह के समझौतों का पालन जमीनी स्तर पर भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यही कारण है कि भारत इस बात पर जोर दे रहा है कि समझौते को जमीन पर कितना लागू किया गया है, इसकी पड़ताल होती रहे।

अन्य विवादित स्थानों की बात करें तो वहां गैर-गश्ती सिद्धांत (नो पेट्रोलिंग प्रिंसिपल) अभी तक लागू है। यह मोटे तौर पर 1986-87 में वांगडुंग (जिसे सुमदोरोंग चू भी कहा जाता है) घटना को सुलझाने का ही मॉडल था। बातचीत के बाद दोनों पक्षों ने ऊंचाइयों से अपनी सेनाएं वापस ले लीं थीं। उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1988 में चीन यात्रा हुई।

यह पृष्ठभूमि इसलिए महत्वपूर्ण है

क्योंकि उस यात्रा से बातचीत शुरू हुई जिसके कारण 1993 में सीमा शांति और सद्भाव समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इसके बाद 1996 में सैन्य विश्वास निर्माण समझौता हुआ ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक अपरिभाषित और अचिह्नित सीमा को लेकर मतभेद हिंसक टकराव का रूप न लें।

हालांकि, चीन ने 2020 में भारत की उत्तरी सीमाओं पर बड़ी संख्या में सैनिकों को तैनात कर इन समझौतों और कई संबंधित प्रतिबद्धताओं का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया था। चीन ने इन समझौतों में निर्धारित नियमों का पालन नहीं किया, जिसके तहत एलएसी पर किसी भी अतिरिक्त सैन्य गतिविधि की सूचना दूसरे पक्ष को पहले से दी जानी चाहिए। यह स्पष्ट रूप से शत्रुतापूर्ण इरादे को दर्शाता है, जैसा कि गलवान घाटी में हुई हिंसक टकराव में भी देखा गया था जिसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे।
इसलिए, सीमा मुद्दे पर विशेष प्रतिनिधियों – एनएसए अजीत डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी – का पहला काम ऐसे परिचालन सिद्धांतों पर एक समझौता करना होगा जिसका पालन दोनों पक्षों के सैनिकों की तरफ से शांति और सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा जब तक कि एक अंतिम समाधान नहीं मिल जाता।
बुधवार को कजान में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच हुई बैठक के बाद फिर से शुरू होने वाले इस तंत्र को यह भी तय करना होगा कि क्या पिछले समझौते अब पुराने हो चुके हैं और क्या नई व्यवस्था पर बातचीत करने की जरूरत है। यदि यह प्रक्रिया सफल होती है तो इससे एक ऐसी योजना आकार ले सकती है जिसके माध्यम से भारत और चीन लद्दाख में एलएसी पर अपने-अपने सैनिकों की संख्या को कम कर सकते हैं।
तीन चरण की प्रक्रिया सैनिकों की वापसी, स्थिति को सामान्य बनाना और द्विपक्षीय संबंधों को पुनर्जीवित करना में भारत के लिए यह अगला चरण है। लेकिन चीन ने आधिकारिक रूप से इस क्रम पर सहमति नहीं जताई है और वह सैनिकों की वापसी और पेट्रोलिंग अग्रीमेंट के बाद संबंधों में एक हद तक सामान्यीकरण को दर्शाना चाहता है। यह भारत सरकार के लिए आने वाले दिनों में एक बड़ा फैसला होगा क्योंकि इसका मतलब होगा चीन पर लगाए गए आर्थिक और अन्य प्रतिबंधों में ढील देना।

एक बार जब सेना इस बात की पुष्टि कर लेती है

कि देप्सांग और देमचोक में सभी पेट्रोलिंग पॉइंट्स तक पहुंच बहाल कर दी गई है तो भारत सामान्यीकरण के कुछ पहलुओं पर विचार कर सकता है जैसे कि क्रमिक विश्वास निर्माण उपाय।

लेकिन प्रेस नोट 3 (जो भारत के साथ भूमि सीमा साझा करने वाले देशों से निवेश को प्रतिबंधित करता है) को वापस लेने जैसे किसी भी बड़े फैसले के लिए सीमा के मोर्चे पर और अधिक विश्वास की आवश्यकता होगी। इस संदर्भ में एलएसी पर अनुमानित सैन्य व्यवहार पर नए सिरे से अनुमोदित व्यवस्था के साथ एक मजबूत डी-एस्केलेशन मॉडल को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
तत्काल डिसइंगेजमेंट और पेट्रोलिंग अरेंजमेंट को अंतिम रूप देने के लिए चार साल का प्रयास भारत के लिए एक महत्वपूर्ण सफलता है क्योंकि इसने चीन को लचीला होने और समझौता करने के लिए मजबूर किया है। यह एक ऐसा पहलू है जो चीन की दुनियाभर में किसी भी डील में नहीं देखा जा सकता है।
Hind News Tv
Author: Hind News Tv

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